करबटें बदलता हूँ (A inspirational poem)
करबटें बदलता
हूँ रात
भर मैं जलता हूँ
जख्म दिए
औरों ने
पर मैं
खुद ही
सिलता हूँ
मुँह मोड़
लिया हो
अपनों ने
तोड़ दिया
हो सपनों
ने
हर बार
मगर हँसकर
सबसे अक्सर
मैं मिलता
हूँ
जिन गलियों में बस
शूल मिले
यादों की
बस कुछ
धूल मिले
कभी रहे
काशी काबा
में हर
रोज मैं
पैदल चलता
हूँ
वक्त के
इस दौर
में निकला
मैं जिस
भी ओर
में
सदा बचा
मैं शोलों
से पर
पानी से
मैं जलता
हूँ
सुबह भी
देखी थी
निराली पल
भर में
जो हुई
थी काली
जिस धुंध
में जग
ये सोता
है मैं
उन रातों
में पलता
हूँ
उस फूल
के जैसा
मेरा मुकद्दर जो मसल
दिया जाता
है
अंजाम मुझे
भी मालूम
है फिर
भी हर
रोज मैं
खिलता हूँ
सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंजी शुक्रिया
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (28-08-2016) को "माता का आराधन" (चर्चा अंक-2448) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी बहुत बहुत धन्यवाद
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