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खरगोश

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मैं चाहता हूं कि चला जाऊं एक ऐसी जगह जहां लोग न हों न हो कोई चिंता न कोई बंधन कर सकूं जहां सिर्फ चिन्तन|२ जहां हों दरख़्त विशाल प्राचीन जिनके तने को बाहों में भरकर जान सकूं अतीत उनका और कह सकूं अपनी व्यथा जहां नदियां किसी पर्वत से उतरती हों और फैल जाती हों किसी मैदान में चादर की तरह जहां रात को आसमां काला हो कि देख सकूं हर एक तारे को जहां तक भी नज़र जाती हो और महसूस कर पाऊं खुदको सुन पाऊं सांसों की आवाज और धड़कन को दौड़ते हुए मैं चाहता हूं कि चला जाऊं एक ऐसी जगह जहां धर्म न हो न हो कोई समाज न कोई रिवाज और सुन सकूं खुदकी दबी आवाज|२ मगर फिर एक खरगोश दिखता है मुझे जो कूंदता फिरता है मेरे आगे पीछे और निहारता है एक आशा भरी निगाहों से कि मेरे सीबाह उसका कोई भी न हो उसकी चंचल कलाबाजियां देख कर मेरा सूना हृदय भी उल्लास से भर जाता है उसके नादान मगर मुश्किल सवालों में मैं भूल जाता हूं संसार के सारे दुखों को उसके चेहरे की एक झलक भर से मेरे उदास जीवन में भी एक मुस्कान खिल जाती है हां वो खरगोश मेरी बेटी ही है जो मुझे जीना सिखाती है और उसके बिना अब कोई भी यात्र