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जुलाई, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक अदना सा कमरा

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मेरे कॉलेज के दिनों में एक अदना सा कमरा था जहाँ उन दिनों मेरा वक्त गुजरा था मैंने देखा नहीं उसे अरसे से और क्या पता कभी देख भी न पाऊं मगर जिन्दा है अभी भी जहन में यहाँ वहाँ दिल के किसी कौने में मैं अकेले ही रहता था वहाँ खुदसे ही बातें करता था अक्सर लेटे लेटे घंटों सोचा करता था मुझे शौक था दीवारों पर तश्वीरें लगाने का मानो कल की ही बात हो वो तश्वीर आज भी मुझे घूरती है कहीं कौने में किताबें खुली पड़ी हैं मेरे बिस्तर पर सिल्बटें आज भी नयी हैं कमरे की खिड़कियाँ जो पिछबाड़े में थीं बंद नहीं होती थीं पड़ोस की आंटी की आवाज जैसे आज ही गूंजी थी फिर अचानक एक दिन कोई आया मेरा अपना सा मुझसे मेरा कमरा बाँटने उसके साथ बिताई यादें आज भी आती है घंटों हंसी की आवाज सुना जाती है एक कूलर लाया था मैं गर्मियों के दिनों में उसकी पहली ठंडक आज भी गहरी नींद सुलाती है मैं अपनी किचन में चाय ब ना ता था उसे भी पिलाता था लौकी की सब्जी बहुत पसंद थी उसको मैं अपने हाथों से पकाता था उसको खिलाता था कैद हैं मेरी जिन्दगी के कई घंटे उधर बस आजाद होना ही नहीं चाहते

आईने में तेरी सूरत

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आईने में तेरी सूरत तुझसे जब पूछेगी कल बिन मेरे सजने सम्बरने क्या मजा श्रृंगार का है वो कहाँ है दे गया जो रूप का अभिमान ये ये बताओ उसके बिन अब क्या मजा संसार का है. आईने में तेरी सूरत तुझसे जब पूछेगी कल बिन मेरे सजने सम्बरने क्या मजा श्रृंगार का है. जब कोई खामोश साये तुम को जब यूँ घेर लेंगे तेरे होठों की हंसी को जब वो तुझसे छीन लेंगे तेरे आँसू की नदी को जब कोई न थाम लेगा तब तुम्हे एहसास होगा दर्द ये किस हार का है. आईने में तेरी सूरत तुझसे जब पूछेगी कल बिन मेरे सजने सम्बरने क्या मजा श्रृंगार का है. गैर जब कोई तुम्हारी जुल्फों में उलझा रहेगा तेरे साये के तले जब आहें लेकर वो बढेगा तेरी यादों के भँवर में एक मेरा आभास होगा खुद ब खुद तुम जान लोगी प्यार किस आधार का है. आईने में तेरी सूरत तुझसे जब पूछेगी कल बिन मेरे सजने सम्बरने क्या मजा श्रृंगार का है.

अपने उस गाँव में

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पीपल की छाँव में अपने उस गाँव में सकरी और उजड़ी पर दिलकश उन राहों में टूटे से घर में जलती दोपहर में छिपते छिपाते दिल के शहर में क्या अब भी कोई सुबह शाम से मिलती है राधा कोई क्या घनश्याम से मिलती है                                                                       जमुना के कोई मुहाने की दस्तक होती है दिल के किबाड़ों पे अब तक इठलाते मौसम और मोहब्बत के किस्से कब तक अकेले सिलूँ मैं वो हिस्से तुम भी लिखो और मुझको बता दो जेठ की आंधी अब भी क्या तूफ़ान से मिलती है बड़े जतन कर सबरी क्या श्री राम से मिलती है वो मिलजुल के रहना सराफत का गहना हर एक आपदा को सदा साथ सहना वो ईद और दीवाली जो संग संग मनायीं यहाँ खीर पूरी वहाँ सेवइयां थी खायीं यहाँ मुझको वैसा न दिखता समर्पण टूटा हुआ सा अब मेरा है दर्पण वहाँ क्या अब भी गीता कभी कुरान से मिलती है सभी बंधन भूल आरती क्या अजान से मिलती है क्या अब भी कोई सुबह शाम से मिलती है राधा कोई क्या घनश्याम से मिलती है

तलाश-ए-मुकाम

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तलाश-ए-मुकाम के लिए,यूँही हर रोज सफ़र करता हूँ हाँ भटकता हूँ कभी-कभी,पर कोशिश अक्सर करता हूँ वो जो महल कागज के,नादानियों में बन गए थे कभी वीरान हैं अब लेकिन,मैं वहीं अब भी बसर करता हूँ मेरा अंदाज-ए-इश्क़,जो तेरी उदासी का मरहम था कभी बेअसर हो गया हूँ अब,या अब भी असर करता हूँ वक़्त के आगे तो मेरे,भगवान भी शिकस्त खा चुके हैं हाँ दरख्त सूखा है पर,मैं तो फ़िक्र-ए-शजर करता हूँ इश्क़ की इबादत में,एक हाँथ तेरा भी था याद हो अगर तूने जहाँ छोड़ा था,अब सजदा उधर करता हूँ पुराने खिलोने तो,बच्चे भी अक्सर भूल जाते हैं अब जीता हूँ ऐसे,कि शख्सियत को अजर करता हूँ ग़ालिब खुसरो मीर मोमिन,बनने की मेरी औकात कहाँ कुछ अधूरी गजलें मेरी,तुमको फिर भी नजर करता हूँ ~अनुपम~

यूँही बारिश में कई नाम लिखे थे

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यूँही   बारिश   में   कई   नाम   लिखे   थे , अपने   हाथों   से   कई   पैगाम   लिखे   थे   अब   तक   जमी   हैं   वो   यादों   की   बुँदे , जिनके   आगोश   में , सुबह   शाम   लिखे   थे ,                                            आज   तनहा   हूँ   मै   तो   ये   सोचता   हूँ , अपने   अकेलेपन   से   यही   पूंछता   हूँ , कहाँ   हे   वो   जिसकी   खातिर   हमने , जमाने   के   कई   गुलफाम   लिखे   थे . जिंदगी   की   तो   मगर   ये   कहानी   पुरानी   है , कल   कोई   और   था   इसके   पैमाने   पर , आज   " अनुपम " की   ये   कहानी   है   , कोई   लाख   भुलाए   पर   केसे   भूलेगा , जिसे   देखकर   मोहब्बत   के   इम्तिहान   लिखे   थे .   यूँही   बारिश   में   कई   नाम   लिखे   थे ...........