उस पल का कोई ठिकाना न था(A poem of Broken heart)


उस  पल  का  कोई  ठिकाना    था, 
इस  पल  में  में जाना  था,
वर्षों  के  इतिहास  के  पलटे  पन्ने  तो 
उसपर  भी  कोई  फ़साना    था.
पता    था  में इस  पल  में  लिखे  पन्नों  की 
दास्ताँ-ए-इश्क  को  भी  इतिहास  बन  जाना  था,
बीते  लम्हों  की  धुंधली  तश्वीर  आई  सामने  तो, 
उसको  हमने  पहचाना    था.

जिस  पल  के  लिए  सहा  मीठा  दर्द  हमने, 
क्या  पता  था  उसका  भी  गुजरा  जमाना  था,
हमने  इजहार  किया  लब्ज-ए-मोहब्बत  का, 
तो  उनके  पास  अच्छा  बहाना  था.
उन्हें  क्या  पता  था  में तो 
इन  लब्जों  के  सहारे  ही  एक  जमाना  बिताना  था,
मेरी  हर  बात  को  मेरे  हर  जज्बात  को 
मुझे  उन्हें  समझाना  था.

पर  उनको  तो  मेरी  हर  बात  को 
यूँही  हवा  में  उड़ाना  था,
मुझे  भी  हर  अश्क  से 
उनकी  तश्वीर  सजाना  था.
इससे  अच्छा  तो  उन्हें 
मुझे  सजा-ए-मौत  सुनाना  था,
मेरे  हालातों  को  मेरे  दिल  के  आघातों  को 
उनके  समझ  में  आना    था.

मेरी  ये  भूल  तो  है  नहीं  क्या  करूँ, 
मेरी  किश्मत  में  दिल  के  समुन्दर  में  ही  डूब  जाना  था,

फिर  भी  मुझे  उन्हें  सात  जन्मों  तक    भुलाना  था,
मेरे  दिल  के  हर  हिस्से  पर 
बस  उनका  ही  नाम  लिख  जाना  था,
इसमें  कसूर  भी  किसका  है  मुझे  भी,
कागज  की  हवेली  को  बारिश  में  बनाना  था.

मुझे  तो  जख्मी  आवाज  में  भी  गुनगुनाना  था,
क्या  करें  दुनिया  की  रीत  तो  पुरानी  ही  है, 
एक  आग  का  दरिया  था  और  डूब  कर  जाना  था,
और  मेरे  साहिल  का  भी  कोई  ठिकाना    था.
 

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