मेरा कुछ भी नहीं टूटा

ये कविता मैंने कुछ साल पहले एक रियल अनुभव पर उसी वक़्त लिखी थी जब कि ऐसा मेरे मोहल्ले में हो रहा था ये किसी के लिए हकीकत किसी के लिए अनुभव किसी के लिए सिर्फ एक कविता हो सकती है,



मेरा कुछ भी नहीं टूटा पर बहुत ही दर्द हो रहा
मेरे पड़ोस में एक माँ का बेटा नहीं रहा
सुनी है जबसे खबर मोहल्ले को चर्चा मिल गयी
एक पिता के जीवन का अब आधार नहीं रहा
मैं अपनी माँ के चेहरे को नजर भर भर के देख रहा हूँ
कुछ ओर बात भी अब सोच नहीं रहा हूँ
खुदा का सुकर है ये मंजर मेरे घर नहीं रहा
मेरे पड़ोस में एक माँ का बेटा नहीं रहा.

कुछ रोज पहले हुई थी शादी उसकी
आज उसके पास जा रही थी बीबी उसकी
मगर पता चला तो कलेजा फट गया
कि अब वो प्यारा वर नहीं रहा
ऐ उपरबाले मेरी गुजारिश है तू मौत के भी मौसम बनादे
यूँ चौंक कर थक गया कभी ये नहीं रहा कभी वो नहीं रहा
मेरे पड़ोस में एक माँ का बेटा नहीं रहा.

जिन्दगी बनाने को अपनों से वो जो दूर रहा
अब अफ़सोस सा होता है जब वो सफ़र नहीं रहा
मैं वो हालात बयाँ कर ही नहीं सकता
जो माँ बाप के ऊपर पल पल गुजर रहा
मैं तो बस कल्पना ही कर सकता हूँ उस दर्द की
जो मैं हर शब्द लिखते हुए अभी कर रहा
जाना तो सभी को है इस बात का गम नहीं यारों
तकलीफ तो ये है की माँ बाप के सामने जनाजा निकल रहा
मेरा कुछ भी नहीं टूटा पर बहुत दर्द हो रहा
मेरे पड़ोस में एक माँ का बेटा नहीं रहा.

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