बाढ़ की ब्यथा (बहुत कुछ छूट गया)



बहुत कुछ छूट गया बहुत कुछ टूट गया
जो बनाये थे हाँथों से घरोंदे अपने
वो दरिया का सैलाब पल भर में ही लूट गया
हर ईंट जिसपर यादों की धूल जमा थी
सजी थी जो अरमानों से छप्पड़
आज खुद हाथों से जब मिटाता हूँ
सो मेरा कलेजा बाढ़ में भी सूख गया
बहुत कुछ छूट गया बहुत कुछ टूट गया.

कभी बड़ी खेती हुआ करती थी गाँव में
अब मानो ठहरा हुआ हूँ एक छोटी सी नाँव में
न जाने कब तक देगी सहारा मुझे
क्यूंकि ये तो मेहमान है
जब मेरा अपना गाँव भी मुझसे रूठ गया
वो दरिया का सैलाब पल भर में ही लूट गया
बहुत कुछ छूट गया बहुत कुछ टूट गया.

अभी भी तांकते हैं किनारे से दरिया का पानी
कहीं परछाईयों में वो खेत की निशानी
वो कश्ती डोल रही है वहां बीच में
वहीँ मचान थी मेरी थोड़े नजदीक में
उसी पर बैठ कर पक्षियों से खेत बचाया
मगर आज दरिया से न बचा पाया
मेरे जीने का हर सहारा ही डूब गया
वो दरिया का सैलाब पल भर में ही लूट गया
बहुत कुछ छूट गया बहुत कुछ टूट गया.

जिन्दगी की डोर कच्ची पड़ गयी है
मैं बुन रहा हूँ ताने बाने बस आस पर टिकी है
साँसों का अब तक साथ नहीं छोड़ा
ज्यादा नहीं दे रहा हूँ थोडा थोडा
मेरे आंसुओं का बाँध भी अब फूट गया
वो दरिया का सैलाब पल भर में ही लूट गया
बहुत कुछ छूट गया बहुत कुछ टूट गया

मैं अनुपम कुछ बयाँ कर पाया बाढ़ के दर्द को कुछ समझा पाया
मेरी कलम नहीं लिख सकती ये कागज जरा सकरा पाया
खोने का दर्द जीने का दर्द सब कुछ समेट गया
वो दरिया का सैलाब पल भर में ही लूट गया
बहुत कुछ छूट गया बहुत कुछ टूट गया.

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