आज मैंने खुद से सवाल पूछा ...............
आज मैंने खुद से सवाल पूछा
क्या स्वयं की बर्बादी का, जिम्मेदार होगा दूजा
दिल से मेरे आवाज आई
सायद अभी हालात का, कारन नहीं खोजा.
हर बात पर ओरों पर, ऊँगली उठाते हैं
कभी खुद अपनी गली से, क्यूँ नहीं जाते हैं
सच्चाई साफ़ दिखजाएगी, यदि मन साफ़ करलें
समस्या खुद सुलझ जाएगी, अहम् का त्याग करलें.
तू - तू मैं - मैं से निकल कर, अभी तक नहीं सोचा
जिम्मेदारी के नाम पर, किसी और पर लादा बोझा
जो भोगा, इसी आचरण का परिणाम होगा
क्या कभी एक से, दो का काम होगा
इसीलिए कहता हूँ, सभी मिलकर चढ़ाई करते हैं
देश में फैली बीमारी की, एक साथ सफाई करते हैं
हम साथ चलेगे, बनकर हवा का झोखा
खुद बा खुद मिट जाएगा, जिसने भी हमे रोका
मैं "अनुपम" अब सवाल, आप सभी से करता हूँ
कि आपने कभी, अन्दर से बहार देखा?
या खींच रखी है आपने, कोई सीमा रेखा?
अनुपम चौबे
beautifull poem by my beautifull frd
जवाब देंहटाएंखोल दे पंख मेरे , अभी और उड़ान बाकी है जमीं नहीं मंजिल मेरी, अभी पूरा आसमान बाकी है लहरों की ख़ामोशी को सागर की बेबसी मत समझ जितनी गहराई अन्दर है, बाहर उतना तूफान बाकी है
जवाब देंहटाएंये शहर कुछ जाना सा लगता है
जवाब देंहटाएंअपना अपना ,,,पहचाना सा लगता है
हाँ वक़्त ने शायद बदल दिया है मुझे ही
वरना जो जैसा था,,,वैसा ही लगता है ....
अब भी वही गलियां है जहाँ थी मैं कभी
अब भी वही दरख़्त हैं जहाँ खेले थे कभी
आज भी चौपाल पर ,,,पंचायत होती है
आज भी नुक्कड़ पर ,,ठिठोली होती है
आज भी सारे बुजुर्ग हुक्का गुदगुदाते हैं
आज भी सभी को ,,,डांट लगते हैं
आज भी घर का आँगन लीपा जाता है
माँ का प्यार आज भी मुझे बुलाता है
बस ,,,अब ये खाब टूटने को है
मंजिले सारी छूटने को हैं
चारो और धुआ धुआ सा नजर आता है
मेरा शहर जाने कहाँ पीछे छूटा जाता है
न जाने कब ये धुंध हटेगी ,,,,
जब इस शहर को उसकी पहचान मिलेगी,,,,,,,,,,,