कोई काफिर समझता है.........




कोई काफिर समझता है कोई काजी समझता है

किनारा किसको कहते हैं ये बस माझी समझता है
खोया है क्या पाया है क्या खोकर मैंने पाया है क्या
कि मेरे रत जागों के राज को रब जी समझता है.

कुछ आसान से शब्दों में लिख डाली कहानी है
जो मेरे साथ है गुजरा वही मेरी जुबानी है
मैं तुमसे क्या कहूँ मैं ही नहीं समझा मोहब्बत को
मेरे एहसास के सावन में बस यादों का पानी है.

कोई महफ़िल नहीं सजती जसन अच्छा नहीं लगता
कोई भी साथ हो मेरे वो संग अच्छा नहीं लगता
ज़माने भर कि खुशियों से कोई मतलब नहीं मुझको
जो तुम न साथ हो मेरे तो कुछ अच्छा नहीं लगता.

भरा जज्बात का दरिया मगर ये बह नहीं सकता
किसी कि आबरू के वास्ते ये ढह नहीं सकता
मुझे तुम छोड़ कर जिसको भी अपना अब बनाओगे
मेरा वादा रहा मुझसे वो ज्यादा सह नहीं सकता.
                              -अनुपम चौबे 


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