अपने उस गाँव में
पीपल की छाँव में अपने उस गाँव में
सकरी और उजड़ी पर दिलकश उन राहों में
टूटे से घर में जलती दोपहर में
छिपते छिपाते दिल के शहर में
क्या अब भी कोई सुबह शाम से मिलती है
राधा कोई क्या घनश्याम से मिलती है
जमुना के कोई मुहाने की दस्तक
होती है दिल के किबाड़ों पे अब तक
इठलाते मौसम और मोहब्बत के किस्से
कब तक अकेले सिलूँ मैं वो हिस्से
तुम भी लिखो और मुझको बता दो
जेठ की आंधी अब भी क्या तूफ़ान से मिलती है
बड़े जतन कर सबरी क्या श्री राम से मिलती है
वो मिलजुल के रहना सराफत का गहना
हर एक आपदा को सदा साथ सहना
वो ईद और दीवाली जो संग संग मनायीं
यहाँ खीर पूरी वहाँ सेवइयां थी खायीं
यहाँ मुझको वैसा न दिखता समर्पण
टूटा हुआ सा अब मेरा है दर्पण
वहाँ क्या अब भी गीता कभी कुरान से मिलती है
सभी बंधन भूल आरती क्या अजान से मिलती है
क्या अब भी कोई सुबह शाम से मिलती है
राधा कोई क्या घनश्याम से मिलती है
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (30-07-2016) को "ख़ुशी से झूमो-गाओ" (चर्चा अंक-2419) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार आपका की इस नाचीज के भावों को देखा ओर अपने संकलन मे जगह दी
हटाएंवाह...
जवाब देंहटाएंभाई-चारे को पुनर्स्थापित करती रचना
आनन्द आ गया पढ़कर
सादर
आभार आपका यशोदा मेम शुक्रिया
हटाएंBahut badhiya
जवाब देंहटाएंधन्यवाद pammi ji
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