तलाश-ए-मुकाम
तलाश-ए-मुकाम के लिए,यूँही हर रोज सफ़र करता हूँ
हाँ भटकता हूँ कभी-कभी,पर कोशिश अक्सर करता हूँ
वो जो महल कागज के,नादानियों में बन गए थे कभी
वीरान हैं अब लेकिन,मैं वहीं अब भी बसर करता हूँ
मेरा अंदाज-ए-इश्क़,जो तेरी उदासी का मरहम था कभी
बेअसर हो गया हूँ अब,या अब भी असर करता हूँ
वक़्त के आगे तो मेरे,भगवान भी शिकस्त खा चुके हैं
हाँ दरख्त सूखा है पर,मैं तो फ़िक्र-ए-शजर करता हूँ
इश्क़ की इबादत में,एक हाँथ तेरा भी था याद हो अगर
तूने जहाँ छोड़ा था,अब सजदा उधर करता हूँ
पुराने खिलोने तो,बच्चे भी अक्सर भूल जाते हैं
अब जीता हूँ ऐसे,कि शख्सियत को अजर करता हूँ
ग़ालिब खुसरो मीर मोमिन,बनने की मेरी औकात कहाँ
कुछ अधूरी गजलें मेरी,तुमको फिर भी नजर करता हूँ
~अनुपम~
Waah...
जवाब देंहटाएंKya khoob likha hai...
Lajwaab... 👍👍👌👌👌
dhanyawad dear plz support
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-07-2016) को "हास्य रिश्तों को मजबूत करता है" (चर्चा अंक-2418) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
dhanyawad meri rachna ko lene ke liye aapka abhar
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